ये लेख पूर्णत: ज़ी न्यूज़ के वरिष्ठ पत्रकार रोहित सरदाना की कृति है और इसमें लिखे विचार भी उनके ही हैं| रोहित सरदाना की इस कृति में किसी भी तरह की छेड़छाड़ या संपादन नहीं किया गया है|
“पिछले साल नवंबर में नोटबंदी पर राजनीतिक पार्टियों के हंगामे के बीच ये बात कहीं दब गई कि देश में चुनाव सुधार को ले कर दो बड़े विषयों पर चर्चा शुरू हो चुकी थी.
एक, राज्यों के विधानसभा चुनाव और देश के लोकसभा चुनाव एक साथ हों. दूसरा, चुनाव स्टेट स्पॉन्सर्ड हों यानि सरकारी खर्च पर हों.
नोटबंदी के बाद सरकार जो क़दम उठा रही है उनसे काले धन पर लगाम लगी तो सबसे ज़्यादा नुकसान राजनीतिक पार्टियों को ही होगा. जिस देश में विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में चुनाव खर्च की सीमा तय होने के बावजूद, पार्टियां कई सौ गुना ज़्यादा खर्च करती हों, वहां अगर सरकारी खर्च पर चुनाव होने लगें तो सोचिए कितना बड़ा बदलाव आएगा.
बिल्डरों, भू माफियाओं, उद्योगपतियों से चंदे के नाम पर उगाही कर के जीतने वाले उम्मीदवार, जब जीतने के बाद कुर्सी पर आते हैं तो वो ‘फेवर्स’ लौटाने के लिए उनके पक्ष में फैसले लेते हैं न कि जनता के. जब उनका पैसा चुनाव प्रक्रिया से हट जाएगा, तो जन प्रतिनिधियों से बेहतर फैसलों की उम्मीद की जा सकेगी.
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राजनीतिक राजशाही से मुक्ति दिलाने की दिशा में ये कदम बड़ा क्रांतिकारी हो सकता है. इस देश में आम आदमी को चुनाव लड़ने का अधिकार तो दिया जाता है, लेकिन उसकी औकात नहीं होती कि वो चुनाव लड़ने के बारे में सोच सके. अगर चुनाव का खर्च सरकारी स्तर पर होगा, तो राजनीतिक पार्टियां उन काबिल लोगों को भी मौका देने के बारे में सोच सकेंगी जो दावेदारी के लिए इनवेस्ट्मेंट करने का जोखिम नहीं उठा सकते.
जिस देश में लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार की खर्च सीमा 70 लाख रूपए अधिकतम और विधानसभा चुनाव के लिए 28 लाख रूपए अधिकतम तय की गई हो, वहां उम्मीदवार अनुमानत: 25 करोड़ रूपए तक खर्च कर देते हों, तो ज़रूरी है कि इस पर लगाम लगे.
सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ के अनुमान के मुताबिक 2014 के लोकसभा चुनाव पर करीब 35000 करोड़ रूपए खर्च हुए. हालांकि चुनाव आयोग का अपना हिसाब कुछ और कहता है.
सरकारी खर्च पर चुनाव हों तो लोकसभा और विधानसभा चुनाव का कुल खर्च इससे कहीं कम होगा.
समय आ गया है जब नोटबंदी के बाद, सरकारें चुने जाने की प्रक्रिया में काले धन की नसबंदी के लिए भी कोई सख्त कदम उठाया जाए.”
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