माता दुर्गा, जो की स्त्री शक्ति और नारी के सम्मान का प्रतीक है, उनको भी इस बुद्धिजीवी वर्ग ने नहीं छोड़ा| जिस स्त्री शक्ति के सामने देव, मानव और असुर सभी नतमस्तक थे आज उसके अपमान पर सब चुप होकर बैठे हैं| शनि शिंगणापुर और सबरिमाला में स्त्री के प्रवेश ना कर पाने पर रुदाली गान करने वाले समाज ने आज इस स्त्री शक्ति के अपमान में अपना सुकून ढूँढ लिया है| स्मृति ईरानी ने जो बात जेएनयू के विषय में कही वो नीचे वैसी की वैसी ही हम प्रस्तुत करते हैं:
” मुझे ईश्वर माफ करें इस बात को पढ़ने के लिए। दुर्गा पूजा सबसे ज्यादा विवादास्पद और नस्लवादी त्योहार है। जहां प्रतिमा में खूबसूरत माता दुर्गा को काले रंग के स्थानीय निवासी महिषासुर को मारते दिखाया जाता है। महिषासुर एक बहादुर, स्वाभिमानी नेता था, जिसे आर्यों द्वारा शादी के झांसे में फंसाया गया। उन्होंने एक सेक्स वर्कर का सहारा लिया, जिसका नाम दुर्गा था, जिसने महिषासुर को शादी के लिए आकर्षित किया और 9 दिनों तक सुहागरात मनाने के बाद उसकी हत्या कर दी, ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? कौन मुझसे इस मुद्दे पर कोलकाता की सड़कों पर बहस करना चाहता है?”
स्मृति के इस बयान (30:57 से देखें) के बाद गंदी राजनीति का खेल और तेज़ हो गया है, कोई माता दुर्गा के अपमान की बात नहीं करता वो लोग भी नहीं जो कमलेश तिवारी की टिप्पणी पर दंगाइयों के साथ खड़े होने में गर्व महसूस कर रहे थे| शर्म की बात तो ये है की इस गंदी राजनीति में कुछ अँग्रेज़ी पत्रकार पूरी तरह से शामिल लगते हैं जो ये साबित करना चाहते हैं की अगर माता दुर्गा का अपमान हुआ है तो ये भी चुप चाप सहो क्यूंकी एक ऐसा वर्ग देश में रहता है जो ये बात मानता है| पर इस नीच सोच वाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को सच का आईना दिखना बहुत ज़रूरी है. खबर.इबनलिवे.कॉम ने एक बेहद महत्वपूर्ण इंटरव्यू छापा है जिसको पढ़ना सभी के लिए आवश्यक है|
इस इंटरव्यू में झारखंड के जनजातीय विद्वान प्रकाश उरांव ने कहा है कि माता दुर्गा ने जिसे मारा था और जिसे सब दानव के रूप में जानते हैं, वह भारत की किसी जनजाति के लिए प्रेरणादायी या पूज्य नहीं रहा है। प्रकाश उरांव ने ये भी कहा की सांख्यिकी संबंधी किसी भी किताब में महिषासुर से जनजाति के लोगों का कोई संबंध नहीं पाया गया है। साथ हे साथ उन्होने ये भी कहा की वो स्वयं जनजातीय समुदाय से हैं और उन्होने कभी नहीं सुना कि महिषासुर किसी भी आदिवासी समुदाय के लिए एक प्रेरणास्रोत रहा हो।
उरांव ने आगे बताया कि वास्तव में असुर एक जनजाति है, जिसका पेशा लोहा गलाना है। लेकिन उनका भी महिषासुर से कोई लेना-देना नहीं है और ये भी की जनजातीय लोग अहिंसक और भोले-भाले होते हैं। पर सबसे मत्वपूर्ण बात उन्होने कही वो इसके पीछे की होती राजनीति की पॉल खोलती हैं उन्होने इंटरव्यू में साफ बोला की कि महिषासुर के जनजातीय समुदायों द्वारा पूजने के लिए जिम्मेदार ठहराने के पीछे कोई राजनीतिक कारण हो सकता है और ये भी की एक वर्ग ऐसा भी हो सकता है जो जनजातियों और दलितों को राजनीतिक कारणों से एक साथ लाने की कोशिश कर रहा हो।
ये कौन हो सकता है? क्या ये वो लोग हैं जो हिंदू धर्म के मानने वालों को चोट पहुँचना चाहते हैं? क्या ये वो लोग हैं जो हिंदू धर्म को ख़त्म करना चाहते हैं और समाज में टकराव की स्तिथि उत्पन्न करके अपनी राजनीतिक और मीडीया की रोटियाँ सेंकना चाहते हैं?
ये बात सही है की हिंदू धर्म एक खुली जीवन और आध्यात्मिक पद्द्यति है, पर नारी के अपमान में किस तरह की स्वतंत्रता ढूँढ रहा है ये वर्ग?
कहाँ तो एक स्त्री की माहवारी पर भी टिप्पणी पर सोशियल मीडीया में ज़बरदस्ती के कॅंपेन चलते हैं और कहाँ ये निष्ठुर मौन| क्या सिर्फ़ दिखावट के लिए और समाज में तमाशा करने के लिए ही स्त्री के नाम का इस्तेमाल किया जाता रहेगा?
स्मृति ईरानी की ये चुनौती की कौन इस मुद्दे पर उनसे कोलकात्ता की सड़कों पर बहस करना चाहेगा कौन लेगा?
क्या जेएनयू में बंगाली हिंदू नहीं रहते? या दिल्ली में माता दुर्गा को मानने वाले नहीं रहते?
रहते हैं! पश्चिम बंगाल में भी और दिल्ली में भी पर जब कोई इन्हें सच बताएगा ही नहीं तो कोई कैसे माता दुर्गा के इस अपमान पर विरोध जताएगा? क्यूँ ऐसी खबरें दबाई जाती हैं?
बुद्धिजीवी होने के लिए नारी प्रतीकों पर चोट करने की ज़रूरत नहीं है| कोशिश कीजिए की अपनी राजनीति की बिसात अपने उपर ही बिछायें किसी और के उपर नहीं|
और लोगों को भी चाहिए की इस तरह की नीच राजनीति करने वालों के सामने अपना गुस्सा अवश्य प्रकट करें|
खैर इसी जेएनयू में माता दुर्गा के अपमान का एक मुँह तोड़ जवाब दिया जब ये जेएनयू ट्राइबल स्टूडेंट्स फोरम ने ये पोस्टर जारी किया:
इस पोस्टर में साफ साफ विदेशी मिशनरियों पर उंगली उठाई गयी है पर इसके बाद भी अगर किसी को संशय है की इस अपमान के पीछे राजनीति नहीं है तो वो ग़लत है|