अफ़ग़ान और बर्मी हिन्दू-सिख

सोवियत-मुजाहिद्दीन जंग में, उसके बाद तालिबान के ख़िलाफ़ अमेरिका की अगवाई में हुई जंग, और सिविल-वॉर में अफ़ग़ानिस्तान में बहुत सारे लोग मारे गये। मरने वालों की तादाद दो लाख से भी ज़्यादा थी। सिविल-वॉर अब भी जारी है और लोग अब भी मर रहे हैं।
दुनिया भर में अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे क़त्लेआम के चर्चे हुये। अफ़ग़ानिस्तान के लिये भारत समेत दुनिया भर के देशों ने करोड़ों डॉलरों की मदद भेजी। भारत समेत कई देशों ने अफ़ग़ानिस्तान के नवनिर्माण के लिये वहाँ करोड़ों डॉलरों के प्रोजेक्ट शुरू किये।
लेकिन, अफ़ग़ानिस्तान के इस घमासान में वहाँ के हिन्दुओं-सिखों ने जो ज़ुल्म सहे, उनका ज़िक्र करने में लगभग सभी को संकोच-सा होता है। वहाँ के ज़्यादातर हिन्दू, सिख वहाँ से निकलकर दूसरे देशों में चले गये हैं। इनमें से कई हमारे यहाँ भारत में आये हुये हैं।
इनसे मेरी हमदर्दी सिर्फ़ इसलिये ही नहीं है कि इन लोगों की और मेरी रगों में एक ही ख़ून बह रहा है अफ़ग़ानिस्तान के ज़्यादातर हिन्दू, सिख मेरी तरह मूलतः वैदिक सभ्यता के ही वंशज हैं। इनके सरनेम तक भी वही हैं, जो हमारे ख़्यबेर पख्तूनख्वा, पोठोहार, सरायकिस्तान, या सिन्ध के हिन्दुओं-सिखों के होते थे/हैं। इनसे मेरी हमदर्दी इंसानियत के नाते से भी है।
एक तरफ़ पूरी दुनिया अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के लिये चिन्तित है, तो दूसरी तरफ़ अफ़ग़ानिस्तान से उजड़कर दूसरे देशों में शरणार्थी बने बैठे इन अफ़ग़ानिस्तानी हिन्दुओं-सिखों के भविष्य की चिन्ता करने वाले कहीं दिखाई नहीं देते। इनके लिये करोड़ों डॉलरों के प्रोजेक्ट्स शुरू करने वाली सरकारें कहीं दिखाई नहीं पड़तीं।
इन हिन्दुओं-सिखों को अगर मैं ‘बेचारे’ कहूँ, तो इसको ग़लत तरीके से न लें। इनके पास कोई चारा है भी कहाँ? अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इनकी क्या हैसियत है? कुछ भी तो नहीं। न इनका कोई वोट-बैंक, न इनके पास तेल के कुएँ। ये दहशतगर्द भी तो नहीं है कि सरकारें इनसे डरकर ही इनकी बात सुन लें। इनको मैं ‘बेचारे’ न कहूँ, तो क्या कहूँ? ये बेचारे ही हैं, बिल्कुल मेरी ही तरह। इनके दर्द को समझता हुआ भी मैं ऐसी स्थिति में नहीं हूं कि इनकी कोई मदद कर सकूँ।
जब अफ़ग़ानिस्तान के दुःखियों की बात होती है, तो इनमें वहाँ के हिन्दुओं-सिखों की बात नहीं होती।
तो अजीब भी क्या है? जब म्यांमार (बर्मा) के क़त्लेआम की बात होती है, तब वहां के हिन्दुओं-सिखों की बात भी कहाँ होती है? कुछ हज़ार हिन्दू परिवारों और कुछ दर्जन सिख परिवारों को वहाँ के बुरे हालात का शिकार होना पड़ा है।
वहाँ एक सामूहिक कब्र से 28 हिन्दुओं की लाशें मिलीं हैं। म्यांमार की सेना ने कहा है कि इन हिन्दुओं का क़त्लेआम एक रोहिंग्या मिलिटेंट ग्रुप ने किया है।
क्या पता ऐसी कितनी ही कब्रें वहाँ होंगी, जिनका अभी पता ही नहीं चला है?
कौन जानता है कि कितने हिन्दू म्यांमार में मार डाले गये हैं? कौन जानता है कि उनको कौन-कौन मार रहा है? म्यांमार सरकार यह जानती है कि ये हिन्दू तो दहशतगर्द नहीं हैं। फिर भी ऐसी ख़बरें हैं कि हिन्दुओं को भी म्यांमार सेना और उसकी हिमायत-प्राप्त गिरोहों के ज़ुल्म का शिकार होना पड़ा है।
रोहिंग्या मुसलमानों के लिये कई देशों ने आवाज़ उठाई है। कहीं अफ़ग़ानिस्तान के हिन्दू-सिखों की तरह म्यांमार के हिन्दू भी नज़रअंदाज़ न कर दिये जायें। इनका भी न तो कोई वोट बैंक है, न तेल के कुएँ।
चलो, ‘बेचारे’ हिन्दुओं की लिस्ट में मैं म्यांमार के हिन्दुओं को भी शामिल कर लेता हूँ।