चुनाव परिणाम एक नयी राजनीतिक वर्णमाला का संकेत दे रहे हैं. भाजपा का छा जाना सेक्यूलर, पारिवारिक जमींदारियों के अंत की घोषणा कर रहा है. कालेधन और काले मन के विदूषक नेता पराभूत हुए, तो वे हार मानने को ही तैयार नहीं हैं. यही अहंकार उनकी दुर्गति का कारण है. जिस देश में वहां की सांस्कृतिक धारा के प्रमुख प्रतीक समाज की अवहेलना ही सेक्यूलरिज्म की निशानी बन पाये, वहां विकास नहीं, केवल विनाश की राजनीति ही फल-फूल सकती है. अब नरेंद्र मोदी ने उस धारा को बदल दिया है. इस वर्णमाला में आर्थिक सुधार और गरीब-किसान का विकास ही विषय रहा है. यह निर्णय करने की हिम्मत चाहिए थी. यही हिम्मत नीतीश कुमार ने बिहार में नशाबंदी लागू करके दिखायी थी और उन्होंने ही सबसे पहले नोटबंदी का भी समर्थन किया था.
यह केवल कालेधन के विरुद्ध युद्ध नहीं, बल्कि भारत की सुषुप्त चेतना के जागरण का पर्व है. संभवत: आनेवाला इतिहास इस बात का सही विश्लेषण कर सकेगा कि किन शब्दों के प्रभाव से देश के सवा अरब लोग आर्थिक योद्धा बन गये. आनेवाले वर्षों में लोग 2016 की मोदी अर्थ क्रांति के रोमांचक खट्टे-मीठे क्षणों की यादें दोहराते हुए अपने पुत्रों-पौत्रों-प्रपौत्रों को बतायेंगे कि वे कैसे एटीएम के आगे पांच-छह घंटे खड़े रहे, कैश की गाड़ी आते सब कैसे उतावले हुए और किस तरह जनता ने कालेधन की अगुवाई करनेवाले काले मन के विपक्षी नेताओं की बोलती बंद कर दी, जो चार करोड़ की गाड़ी में चार हजार निकालने का नाटक कर रहे थे.
यह कौन सा देश है, जिसे बदला जा रहा है? यह कौन सी जनता है, जो पुन: प्रतिरोधी शक्ति का पर्याय बन यूं ही एक हो खड़ी हो गयी, मानो कारगिल दोहराया जा रहा हो? और इतनी गुप्तता के साथ प्रधानमंत्री ने महीनों की तैयारी को सबकी नजरों से ढक आठ नवंबर की वह घोषणा कर दी, मानो अटलजी पोखरण तीन कर रहे हों.
इसका असर केवल अर्थव्यवस्था या ढांचागत निर्माण में अधिक पूंजी निवेश तक ही सीमित नहीं रहेगा. यह भारत का मन बदलने का अनुष्ठान हो गया, जो मन पहले माने बैठा था कि समांतर अर्थव्यवस्था और कालाधन हमारे जीवन का अपरिहार्य अंग है, जो माने बैठा था कि इस देश में अगर कायदे और फायदे में से किसी एक को चुनना हो तो फायदे को चुनो, क्योंकि ऊपर से नीचे तक सब कायदे को धत्ता बताते हुए सिर्फ फायदा चुन रहे हैं. वह जन बदल गया-भारत का आत्मविश्वास लौटने लगा कि यह वह देश है, जहां कायदे या फायदे की बात नहीं, बल्कि कायदे के साथ फायदे की बात फलती-फूलती है.
जो पीड़ा आज हो रही है, वह नये भारत के जन्म की प्रसव पीड़ा है. वह नवोन्मेष का वह काल है, जब वेदना अधरों पर अनागत के स्वागत की मुस्कान बिखेर रही है, दुख और क्लेश का काला बादल नहीं.
हाल में एक सरस्वती शिशु मंदिर, सतना की स्वर्ण जयंती में भाग लेकर लौटा, तो रेलगाड़ी में एक सरकारी कर्मचारी से चर्चा होने लगी. जावेद अहमद रेल कर्मचारी हैं- बोले, हमारे घर में, जब मोदी का राष्ट्र के नाम संबोधन शुरू हुआ, तो हमें अंदेशा था कि शायद अब लड़ाई की घोषणा होनेवाली है. पर, नोटबंदी की घोषणा से मेरी पत्नी सकते में आ गयी. मुझसे छुपा कर घर के किसी वक्त जरूरत आपदा काल में उसने कुछ पैसे इकट्ठा किये हुए थे.
मैं भी चौंक गया. उसने अपनी साड़ी, जंपर के पैसे खर्च न करके घर के लिए कितनी मेहनत से एकत्र किये होंगे वे पैसे. पर फिर मैंने कहा- अरे हमें क्यों डरना? सीधे तुम्हारे खाते में जमा करायेंगे. डर तो उसे हो, जिसने कालाधन रखा हो. साहब कुछ परेशानी तो हाेगी ही, पर मोदीजी ने हिंदुस्तान के हर आदमी का दिल जीत लिया.
जैसे हमारे सीने में दिल धड़कता है, हमारा मन होता है, वैसे ही देश का दिल और मन होता है- जिसे दीनदयालजी ने चिति कहा. नरेंद्र मोदी ने देश के उस मन को छू लिया. इससे हमारी अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अन्य सभी क्षेत्रों में नये तेवर, नये कलेवर लाने में मदद मिलेगी. वह आत्मविश्वास आयेगा कि शिक्षा पद्धति, चिकित्सा योजनाएं, न्यायपालिका, पुलिस व्यवस्था और प्रशासनिक सेवाओं में बरसों से लंबित पड़े सुधार लाये जा सकें.
यह देश कराहता रहा है एक लचर, जनता से दूर और असल देरी के लिए जानी गयी न्याय व्यवस्था से. लोगों को पुलिस और प्रशासन की पारदर्शिता पर भरोसा नहीं. हर बड़े नेता और अफसर जरूरत पड़ने पर (एम्स के अपवाद के अलावा) निजी अस्पतालों में जाते हैं. ये सभी व्यवस्थाएं कठोर निर्णय तथा गहरे आत्मविश्वास की मांग करती हैं. वह देश, जहां न कोई गरीब हो, न अशिक्षित और न ही अस्वस्थ-कमजोर हों, तभी एक देश बन सकता है, जब सीने में ईमानदारी का दिल और भुजाओं में भीतरी व बाहरी शत्रुओं का दलन करने का दम हो.
नरेंद्र मोदी ने नरेंद्र विक्रमादित्य बन कर यह काम शुरू कर दिया है. यह मेरी दृष्टि में भारत के उस नये पर्व का श्रीगणेश है, जब शक, हूण, बर्बर, तातार नष्ट होने की ओर जा रहे हैं… शुभम् करोति कल्याणम्!
नरेंद्र विक्रमादित्य का उदय भाजपा नेता तरुण विजय की कृति है और इसमें कोई छेड़ छाड़ या बदलाव नहीं किया गया है|