1971 के युद्ध की भयावह तस्वीर को जनरल वी के सिंह ने अपनी कलम से एक बार फिर से सबके सामने लाकर रख दिया है, कुछ बातें उनके लेख में ऐसी हैं जो अंतर्मन पर कड़ी चोट करती है और साथ ही साथ पाकिस्तान का बर्बर चेहरा भी दिखाती है:
1971 में, बांगलादेश में स्वतंत्रता के लिए उमड़े जनान्दोलन को दबाने के लिए पाकिस्तान ने जनरल टिक्का खान को वहाँ तैनात किया, जिसने कथित रूप से “पूर्वी पाकिस्तान” में अपने ही लोगों पर ऐसी बर्बरता दिखाई कि उसे “बंगाल के कसाई” का उपनाम दिया गया। उसकी कुख्यात प्राथमिकता थी ज़मीन पाना, न कि उसपर जिंदा लोग। अनुमानित है कि इस संघर्ष में 30 लाख साधारण नागरिक मरे।
भारत ने अपनी सीमाएं शरणार्थियों के लिए खोलीं, और अंतर्राष्ट्रीय संप्रदाय से इस अत्याचार को रोकने के लिए अपील की। जब सभी फ़रियाद अनसुनी रह गयी, तब भारत ने वही किया जो एक ज़िम्मेदार राष्ट्र को करना चाहिए था – हस्तक्षेप।
गर्व है मुझे कि इस युद्ध का एक सैनिक मैं भी था।
1971 में, बांगलादेश में बढ़ते जनरोष को देख कर उस समय के पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल याहया खान ने क्रुद्ध हो कर कहा था – “30 लाख मार दो, बाकी बचे सब पाकिस्तानी हुकूमत को मानेंगें। ”
पाकिस्तानी सेना ने किया भी यही, और इस स्तर का नरसंहार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद देखने को नहीं मिला था। हैरत की बात थी कि जितने पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया उन्हें अपने कुकृत्यों का कोई पश्चाताप नहीं था।
आत्मसमर्पण के बाद ऐसे ही पाकिस्तानी सेना के अफसर ने मुझसे पुछा – “पता है, एक ही गोली से कितने बंगाली मारे जा सकते हैं?” जब मैंने विस्मय से उसे देखा तो उसने मुस्कुराते हुए कहा – “12! मैंने स्वयं किया है।”
तथाकथित अपने ही लोगों पर ऐसी बर्बरता का उदाहरण जानने के लिए दृष्टि अधिक दूर दौड़ाने की आवश्यकता नहीं है।
यदि आपको लगता है कि बलोचिस्तान में अपने ही लोगों पर सैन्य कार्यवाही करना पाकिस्तानी हुकूमत के लिए अपवाद है, तो आप गलत हैं। 1971 में बांग्लादेश ने जिस स्तर का जातीय संहार देखा उसकी करता-धरता पाकिस्तानी सेना थी जिसे आला कमान से स्वीकृति प्राप्त थी। 30 लाख लोगों को उनकी जातीयता के आधार पर मौत के घाट उतार दिया गया। शायद बांग्लादेश (जो उस समय पूर्वी पाकिस्तान था) के यह घाव समय भी नहीं भर पायेगा।
इन उदाहरणों से शायद उन लोगों को सद्बुद्धि आये जो कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने की पैरवी कर रहे हैं।
1971 के युद्ध के दौरान, पाकिस्तान में एक फ़तवा जारी किया गया कि समस्त बांगलादेशी ‘स्वतंत्रता सेनानी’ हिन्दू माने जायेंगे और उनकी महिला सम्बन्धियों के साथ दुष्कर्म किया जा सकता है। यह आतंक अभियान स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले बंगालियों को हतोत्साहित करने के लिए था।
उसके बाद बांगलादेश की अबलाओं पर बेलगाम अत्याचार के चलते हज़ारों अनचाहे गर्भ, भ्रूण हत्या, शिशुहत्या अथवा आत्महत्या करने के लिए उन्हें असहाय कर दिया गया।पीड़िताओं की आयु 8 – 75 साल, और संख्या 4 लाख के करीब बताई जाती है।
विश्व स्तर पर माना गया कि इस अभियान को एक अनुशासित सेना के द्वारा सुनियोजित ढंग से एक रणनीति के अंतर्गत अंजाम दिया गया।
कुछ मत इस प्रकार भी के भी हैं कि इस युद्ध से भारत ने क्या अर्जित किया? भारत को जान माल की हानि से क्या लाभ हुआ? उसके उपरान्त पाकिस्तान ने भारत को सदा सर्वोच्च शत्रु माना, गैर कानूनी बांगला शरणार्थी भी एक समस्या ही हैं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत तब अपने पड़ोसी की सहायता के लिए आया जब सम्पूर्ण विश्व ने वहाँ हो रहे अत्याचार की तरफ पीठ कर ली थी। न्याय एवं मानवता का संरक्षण सदैव भारत की संस्कृति रही है। इस समय तो पीड़ित वे लोग थे जो कभी अपने थे।
समझिये: भारत चाहता तो बांग्लादेश को हथिया लेता, या पाकिस्तान की एक तिहाई सेना को बंदी रखता। पर गर्व करिये कि हमारे देश की महत्वाकांक्षा इस प्रकार कभी भी नहीं रहीं। यह चरित्र दुर्लभ है, और इसकी सराहना पाकिस्तान की जनता भी मन मार कर करती है।
हमने 1971 मेंअत्याचारी की आधी जल सेना, चौथाई वायु सेना नष्ट कर दी और तिहाई थल सेना बंदी बनाई।
पाकिस्तान में भी तानाशाही की तख्तापलट हुई, और बांग्लादेश स्वतंत्र हुआ।
हमने यह स्थापित कर दिया कि हमारे रहते अत्याचार और अमानवता के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में कोई स्थान नहीं। फक्र है।
समाप्त!
ये पूर्णत: जनरल वी के सिंह का लेख है और इसमें थोड़ी सी ही एडिटिंग की गयी है| ये तस्वीरेंभी उन्हीं की फ़ेसबुक वॉल से ली गयी हैं|