रावण आज के हमारे समाज को कुछ कहना चाहता है|
लंकापति रावण की बात जानिए मेरे अंदर के कवि की ज़ुबानी:
चेहरे पर जिसके तेज बड़ा
पर्वत-सा जो यह अचल खड़ा
पहना है मुकुट हीरों से जड़ा
वह मेरी राह रोके है खड़ा।
मैं उसकी ओर जो देखा करूँ
कोशिश तो करूँ
न देख सकूँ
कैसे चेहरे का तेज सहूँ?
कैसे उसको कोई बात कहूँ?
कुछ पल रुक कर मैं बोल पड़ा
“तू कौन मेरी राह रोक खड़ा?
कोई ब्राह्मण वेद पुराण पढ़ा?
या क्षत्रिय युद्धाभिमान बड़ा?”
“कोई मानव या कोई देव हो तुम?
कोई राक्षस
कोई अदेव हो तुम?
या ऋषि
ब्रह्म अभेव हो तुम?
नृसिंह
नृपति
नरदेव हो तुम?”
अग्नि जैसे जो दहकत है
सुन बात मेरी यूँ बोलत है
जैसे कोई घन गरजत है
सुनकर जिसको दिल लरजत है।
“लंकेश हूँ मैं
अरिमर्दन हूँ
महारथी हूँ मैं
शत्रुघ्न हूँ
रावण हूँ मैं
मैं रावण हूँ
ब्राह्मण हूँ मैं
मैं ब्राह्मण हूँ।
वीणा से निकली तान हूँ मैं
पुलस्त्य वंश की शान हूँ मैं
राक्षस कुल का अभिमान हूँ मैं
और योद्धा बहुत महान हूँ मैं।
श्रोत्रिय हूँ मैं
वेदज्ञ हूँ
शास्त्रज्ञ
दृढ़प्रतिज्ञ हूँ
शंकर जी का कृतज्ञ हूँ।
मैं त्रेता में
मैं द्वापर में
कलियुग में तो
मैं घर-घर में
मैं दानी में
मैं याचक में
मैं नारी में
मैं नर-नर में।
विद्यालय में
छात्रालय में
धर्मालय में
मदिरालय में
अग्नाल्या में
हिमालय में
सचिवालय में
मंत्रालय में।”
उसने अपना यह परिचय दिया
और ततपश्चात वह मौन हुआ
भीतर से वह कुछ नर्म दिखा
आंखों में कोई दर्द छुपा।
सीने में जो उसके धड़कत है
वह दिल आख़िर क्यों तड़पत है?
अब यह लंकेश क्या चाहत है?
दिल मेरा समझ न पावत है।
“लंकेश !
कहो
क्या बात हुई?
क्यों तुमने मेरी राह रोकी?
कुछ कहनी है क्या बात नई?
जो अब तक तुमने नहीं कही?”
“हाँ
दिल में बात पुरानी है
जो मैंने तुम्हें सुनानी है
यह तुमने रार क्या ठानी है
कि रावण बहुत अभिमानी है?”
बाहर से दिखता ब्राह्मण-सा
तेरे भीतर कोई रावण-सा
धर्मग्रन्थ तू चाटे है
भीतर का ज़हर न काटे है।
उपदेश करत हो लोगों को
मन चाहे तेरा भोगों को
ऐसे तो राम न पईयत है
ऐसे तो नर्क ही जईयत है।
न गर्व में आकर तन जाना
मेरे जैसे न बन जाना
अनन्त काल तक भटकोगे
जो धर्म की राह न पकड़ोगे।
ग्रन्थ पढ़ो
पर अमल करो
कुछ धर्म करो
भई अक़्ल करो
गुण-ज्ञान-हीन
नहीं मुक्त नर
कहूँ बात यही
तुम कान धरो।
धर्म कर्म थे बहुत मेरे
पाप कर्म तो कम ही किये
वे मेरे पाप न छूटे रे
किये पुण्य सब लूटे रे।
पाप से डर कर दूर रहो
मुख से अपने बस राम कहो
धर्म करो
भई धर्म करो
धर्म करो
बस धर्म करो।”