महात्मा गाँधी हत्या: 1948 में बम्बई स्टेट में क़त्ल कर दिये गये ब्राह्मणों का ज़िक्र मैं कैसे छोड़ दूँ?

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70 साल पहले आज के ही दिन गाँधी जी की हत्या हुई थी। सब को ही पता है। देश भर में इस सम्बन्ध में कार्यक्रम हुये हैं। हर साल ही होते हैं।

वे बड़े काले दिन थे। वे बड़े ख़ूनी दिन थे। दस लाख से ज़्यादा लोग मौत की आगोश में चले गये थे। सब को पता ही है। मैं भी तो बार-बार उन्हीं की बातें कहता रहता हूँ। साल में सौ बार उनको श्रद्धांजलि देता हूँ। आज के दिन तो गाँधी जी को श्रद्धांजलि देना ही बनता है।

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1948 की 30 जनवरी को गाँधी जी की हत्या हुई थी। जब किसी की हत्या की बात हो, तो उसके हत्यारे की भी बात होती है। जब गाँधी जी की हत्या की बात हो, तो नत्थूराम गोडसे का नाम भी आता ही है।

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नत्थूराम गोडसे ने गाँधी जी की हत्या की। यह तथ्य है। ख़ुद नत्थूराम गोडसे ने यह स्वीकार किया था कि गाँधी जी की हत्या उसी ने की थी।

जल्दबाज़ी में 15 नवम्बर, 1949 को गोडसे को नारायण दत्तात्रेय आप्टे के साथ अम्बाला में फाँसी दे दी गई। उस वक़्त की सरकार सिर्फ़ 71 दिन और इन्तज़ार कर लेती, तो गोडसे और आप्टे को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का मौक़ा मिल जाता। उस वक़्त हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट ही नहीं थी। 21 जून, 1949 को पंजाब की हाई कोर्ट ने दोनों की मौत की सज़ा को तस्दीक़ किया था।

सुप्रीम कोर्ट की जगह उस वक़्त प्रिवी कौंसिल हुआ करती थी। प्रिवी कौंसिल ने गोडसे और आप्टे की अपील न सुनने का फ़ैसला लिया। प्रिवी कौंसिल की मियाद 26 जनवरी, 1950 तक ख़त्म हो जाने वाली थी। इतने कम वक़्त में अपील का फ़ैसला नहीं हो सकता था, इसलिये प्रिवी कौंसिल ने अपील नहीं सुनी।

71 दिन बाद सुप्रीम कोर्ट का गठन होना था। गोडसे और आप्टे को सुप्रीम कोर्ट में अपील का मौक़ा देने के लिये 71 दिन का इन्तज़ार किया जाना सरकार को मन्ज़ूर नहीं था। इसलिये सुप्रीम कोर्ट के गठन के 71 दिन पहले गोडसे और आप्टे को फाँसी पर लटका दिया गया।

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अपनी जान बचाने के लिये रहम की अपील करना गोडसे को मन्ज़ूर नहीं था।

नत्थूराम गोडसे को भी शायद पता न हो कि उसने सिर्फ़ गाँधी जी की हत्या ही नहीं की थी, बल्कि एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया था। यह प्रश्न चिन्ह इतिहास के प्रति हमारी समझ पर भी था और गाँधीवाद पर भी।

गोडसे को फाँसी पर लटकाये जाने के बावजूद उस प्रश्नचिन्ह को फाँसी नहीं दी जा सकी, जो गोडसे लगाकर चला गया था। उस दौर के इतिहास की हमारी समझ पर वह प्रश्नचिन्ह अभी भी है, बल्कि अब और बड़ा हो गया है। उस प्रश्नचिन्ह से बचने के लिये ज़रूरी होगा कि गोडसे की बात ही न की जाये।

आज 30 जनवरी को सिर्फ़ गाँधी जी की बात ही हो।
सितम्बर, 1947 में कलकत्ता में फ़साद रोकने के लिये व्रत रखने वाले गाँधी जी ने अक्टूबर, 1947 में मीरपुर और मुज़फ़्फ़राबाद समेत कश्मीर में शुरू हुये हिन्दू-सिखों के भयंकर क़त्लेआम और औरतों के बलात्कारों और अपहरणों को रोकने के लिये व्रत नहीं रखा। गाँधी जी जानते ही होंगे कि उनके व्रत रखने से कश्मीर में हिन्दू-सिख क़त्लेआम नहीं रुकने वाला।

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आज 30 जनवरी को सिर्फ़ गाँधी जी की ही बात हो। आज कश्मीर में 1947-48 के हिन्दू-सिख क़त्लेआम की बात नहीं की जानी चाहिये। उन को श्रद्धांजलि किसी और दिन दे लेंगे। आज गाँधी जी को श्रद्धांजलि देनी है।

31 जुलाई, 1947 को गाँधी जी रावलपिण्डी में थे। 5 अगस्त को उन्होंने पोठोहार के इलाके के हसन अब्दाल में गुरुद्वारा पंजा साहिब में संगत को भाषण दिया। फिर वह वाह के रिफ्यूजी कैम्प में रह रहे हिन्दुओं, सिखों से भी मिले। 6 अगस्त को वह लाहौर पहुँचे और वहाँ के हिन्दुओं और सिखों को भाषण दिया।

गाँधी जी वहाँ के हिन्दुओं, सिखों को उपदेश दे रहे थे कि उनको नये बनने जा रहे पाकिस्तान में ही रहना चाहिये।
लाहौर के कई हिन्दू, सिख ऐसे थे, जिनको गाँधी जी का पाकिस्तान में रुके रहने का सुझाव सही नहीं लगा। वे अपने घर छोड़कर नये भारत में आ गये और इस तरह वे क़त्लेआम से बच गये। जो लोग गाँधी जी के कहने में आकर 6 अगस्त के बाद भी वहीं रुके रहे, उनका क्या हाल हुआ, वह मैं अपनी कई वीडिओज़ में बता चुका हूँ।

पाकिस्तान बनने के बाद तक भी गाँधी जी यही कहते रहे कि पाकिस्तान के हिन्दुओं, सिखों को वहीं पाकिस्तान में ही रहते रहना चाहिये।

वही गाँधी जी दिसम्बर का महीना आते-आते पाकिस्तान के बहावलपुर के नवाब को अपील करते दिखे कि वहाँ फसे हिन्दुओं को भारत पहुँचाया जाये।

आज 30 जनवरी को पाकिस्तान में उस वक़्त फंसे बैठे उन बेचारे हिन्दुओं की भी बात नहीं करनी है। आज तो बस गाँधी जी को श्रद्धांजलि देने का दिन है।

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ऐसा नहीं था कि किसी हर-मन-प्यारे नेता को अचानक ही किसी नत्थूराम गोडसे ने उठकर क़त्ल कर दिया था। 1947 के साल ने ही कई बार यह इशारा किया था कि बहुत सारे लोगों में गाँधी जी के लिये ग़ुस्सा था। गाँधी जी की सभाओं में बदअमनी फैलने लगी थी। गाँधी जी के क़त्ल की इबारत 1947 में ही लिखी जा चुकी थी। यह अलग बात है कि उस इबारत को गाँधी जी पढ़ नहीं पाये होंगे।

गाँधी जी की हत्या करने की कोशिश एक रिफ्यूजी मदन लाल पाहवा ने भी की थी, लेकिन वह नाकाम रहा। गाँधी जी की हत्या नत्थूराम गोडसे के हाथों होनी ही लिखी थी।

आज 30 जनवरी को सिर्फ़ गाँधी जी की ही बात हो। आज उन ब्राह्मणों को भी श्रद्धांजलि नहीं दी जाएगी, जिनको गाँधी जी की हत्या के बाद बम्बई स्टेट में सिर्फ़ इस लिये क़त्ल कर दिया गया था, क्योंकि नत्थूराम गोडसे भी एक ब्राह्मण था। वह एक चितपावन ब्राह्मण था। गाँधी जी की हत्या के बाद कई ब्राह्मणों, ख़ास करके चितपावन ब्राह्मणों को नये आज़ाद हुये भारत में अपनी जान गंवानी पड़ी।

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आज सिर्फ़ गाँधी जी को ही श्रद्धांजलि दी जानी चाहिये।

पर ख़ुद को रोक नहीं पा रहा हूँ। कश्मीर में शहीद हुये हिन्दुओं, सिखों की आत्माएं मुझे देखती होंगी कहीं से। 1948 तक भी पाकिस्तान में फंसे बैठे हिन्दुओं की ख़ौफ़ के उस माहौल में ली गई साँसे मैं अगर महसूस न करूँ, तो क्या उनकी आत्माएं मुझसे निराश न हो जाएंगी? 1984 में दिल्ली में मारे गये सिखों की बात भी मैं कैसे कर पाऊँगा, अगर 1948 में बम्बई स्टेट में क़त्ल कर दिये गये ब्राह्मणों का ज़िक्र मैं छोड़ दूँ?

मैं उन सभी को उदास दिल की गहराइयों से श्रद्धांजलि भेंट करता हूँ।

Amrit Pal Singh Amrit की कलम से साभार!